आदमी की औकात-कविता
Whats app पर किसी सज्जन ने एक ग्रुप में भेजी थी,कविता अच्छी लगी पर इसके मूल लेखक का पता नहीं चल पाया हैं . अज्ञात लेखक की कविता में वैराग्य झलकता हैं,जीवन की क्षण भंगुरता और देह की नश्वरता को इंगित करती कविता हैं - आदमी की औकात . एक माचिस की तिल्ली, एक घी का लोटा, लकड़ियों के ढेर पे, कुछ घण्टे में राख..... बस इतनी-सी है आदमी की औकात !!!! एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया , अपनी सारी ज़िन्दगी , परिवार के नाम कर गया, कहीं रोने की सुगबुगाहट , तो कहीं फुसफुसाहट .... अरे जल्दी ले जाओ कौन रखेगा सारी रात... बस इतनी-सी है आदमी की औकात!!!! मरने के बाद नीचे देखा , नज़ारे नज़र आ रहे थे, मेरी मौत पे ..... कुछ लोग ज़बरदस्त, तो कुछ ज़बरदस्ती रो रहे थे। नहीं रहा.. ........चला गया... चार दिन करेंगे बात......... बस इतनी-सी है आदमी की औकात!!!!! बेटा अच्छी तस्वीर बनवायेगा, सामने अगरबत्ती जलायेगा , खुश्बुदार फूलों की माला होगी... अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी......... बाद में ...