माटी का दीया पर हिंदी कविता - Hindi Poems on Diwali

You Are Reading : Hindi Poems On Diwali-माटी का दीया 

दीपावली का पर्व आ रहा हैं और दीपोत्सव के बिना इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती हैं और दीपोत्सव के लिए जिसकी जरूरत हैं वो हैं दीया वो भी माटी का दीया . जो रौशनी और झिलमिलाहट का आनंद मिट्टी के दिए और तेल की बाती से मिलता हैं वो कृत्रिम दीयों में नहीं मिलता. आज की हमारी पोस्ट इसी विषय पर आधारित हैं .

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Best In Hindi के पाठकों के लियें इस बार हम लेकर आये हैं मिट्टी के दीये की कहानी कवियों की जुबानी.

कई कविताओं में दीया और कई में दिया लिखा गया हैं ,पर हमने उन्हें मूल स्वरूप में यथावत रखा हैं .
ज्यादातर कवितायेँ हिंदी ब्लोग्गेर्स की हैं और कविता के साथ उनका नाम और ब्लॉग का लिंक दिया हैं .फिर भी अगर आपको अपनी कविता के Best In Hindi पर प्रकाशन से एतराज हो तो आप ब्लॉग एडिटर से संपर्क करें.

मै हूँ माटी का दिया-धनेश राम पटेल 

मै हूँ माटी का दिया , काली रात का पीया .
मुझे जिसने जलाया मै वहा जल दिया
जल दिया जल दिया जल दिया जल दिया
मै तो झोपड़ी और महलों में रोशन किया
अँधेरा हर लिया और उजाला ही दिया
मैंने राजमहलो का सुख भी लिया मै हूँ माटी का दिया
पूजा पाठो में मैंने सब का साथ दिया
बिगड़ते काम को संभव किया
बिना दिया के भगवान् की पूजा किसने किया
मै हूँ माटी का दिया
घर महल से निकलकर शमशानों का सफ़र किया
मुझे जहां भी जलाया रौशन किया
मै हूँ माटी का दिया,काली रात का पीया .
मुझे जहां जलाया मै वहा चल दिया
चल दिया चल दिया चल दिया चल दिया
सब के सुख और दुःख में साथ दिया
मुझे जिसने बुलाया मई वहा चल दिया
इस अँधेरे को मैंने आँख दिया
मैंने तेल पिया और उजाला दिया मै हूँ माटी का दिया
जैसे सूरज ने जग को सबेरा दिया
मैंने जल जल करके उजाला किया
मैंने अँधेरा पिया और रौशन दिया
मै जल जल करके सबको ज्ञान दिया
मै हूँ माटी का दिया
धनेश राम पटेल शिक्षक राजनांदगांव की कविता माटी का दीया हमने राजपूत क्षत्रिय महासभा के ब्लॉग से ली  हैं -Link 

माटी का दीया -वंदना सिंह 


कुम्हार के पैरों तले रौंदा गया
फिर हाथों ने तरतीब से गढ़ा
चाक पर कई मोड़ से गुजरकर
नाम उसको मिला इक दीया

बंद गली की किसी
सीलनभरी चौखट पर
उम्मीदों का
टिमटिमाता दीया
आलिशान महलों में
तुलसी के चौबारे पर
खुशियों का चमकता दीया 

नयी दुल्हन के हाथों से जला
शगुन का दीया
मंदिर के प्रांगण में अध्यात्म का
प्रज्जवलित दीया
तल में अँधेरा लिए
रोशनी की
जगमग फैलाता दीया
माटी में मिल जाता
जलने के बाद
फिर माटी का दीया.

वंदना सिंह के ब्लॉग लेखनी से उनकी कविता माटी का दीया ली गयी हैं मूल लिंक 

नन्हा दीया -सुरेन्द्र गोयल


टिमटिमाया जब
एक नन्हा दिया,
तो, देखकर उसे
अँधेरा भाग लिया।

बनी थी बाती
नरम रुई से,
और बना था
तन दिये का
मिट्टी की लोई से।

तेल की दो बूँदों ने
मिट्टी रुई को
एक कर दिया,
फैलाने को जग में उजियारा
तन दोनों ने
अपना जला दिया।

ये कहानी है
दीये और बाती की,
नरम रुई की
और कुम्हार की माटी की।


जलाकर तन अपना
रुई ये बोली;
प्रेम से रहो मानव,
न खेलो खून की होली।

मिट्टी होकर भी
दीया बाज़ी मार गया;
नारायण का रूप लेकर भी
देखो, नर हार गया।

चले जब
चाक कुम्हार का,
नये-नये रूप धरे माटी,
नहीं फिर कोई
अलग रंग-रूप, जात और कुल का
सब ही है
अंश उस करतार का।

न जाने फिर भी
क्यों मानव समझा नहीं,
उलझा रहा रात-दिन
जात, धर्म, वर्ण, कुल
और भाषाई झगड़ों में,
जलाकर भी सब कुछ
क्यों तम मिटता नहीं?

तब कहा दीये ने
मिट्टी है,
मिट्टी में मिल जायेगी,
फ़ना हो जायेगा बन्दे
बस !
तेरी कहानी रह जायेगी।

नन्हें-नन्हें दीये मिलकर
प्रकाश पुंज हो जाते हैं,
जलाकर
अमावस का स्याह अँधेरा
नवप्रभात मुस्काते हैं।

सुरेन्द्र गोयल-नई दिल्ली इनकी रचना हमने इनके गूगल प्लस की पोस्ट से ली हैं इनका Twitter लिंक भी मिला हैं .

मुझे एक बना दो दिया माटी का- भगवान बाबू "शजर"


मुझे एक बना दो दिया माटी का
कण-कण आलोकित कर पाऊं
फैल रहा जग में अंधियारा
कण-कण रोशन कर जाऊं

हुआ क्या जो नन्हा-सा दिया हूं
जग सारा रोशन कर सकता हूं
जाते-जाते भी, पथ बताने को
एक बार तेज मैं जल सकता हूं
चारो तरफ जो फैल रहा है
अप्रेम, अधर्म का एक आंचल
अपनी छोटी लौ की कसम
स्नेह, प्रेम मैं भर सकता हूं

दीपोत्सव जो आया है
मन में उमंग इक लाया है
अन्धियारा लेकिन मन में बैठा
तीन-पाँच कुछ सोच रहा है
मन में प्रकाश फैलाने को
प्रेम दीप मैं बन जाऊं
ईर्ष्या, अहम की कालिख को
इसी दीवाली मिटा पाऊं

भगवान बाबू "शजर" की ये कविता NBT के ब्लॉग से ली गयी हैं -लिंक 

मैं माटी का दीया हूँ-रास बिहारी गौड़ 


मैं माटी का दीया हूँ
स्नेह संग जीया हूँ

द्वार देहरी जला हूँ
आले आँगन पला हूँ
आँधियों से लड़ा हूँ
सूर्य समक्ष खड़ा हूँ
सितारों का नायक हूँ
जागरण का गायक हूँ

पावन प्रेम पपीहा हूँ
मैं माटी का दीया हूँ
रौशनी का नग्न नृत्य
चमकता झूठा हर सत्य
व्यूह बनकर डस रहा
देखो,अँधेरा हँस रहा
बेबस बाती के द्वंद्व पर
हवाओं के अनुबंध पर
आग का अभिनन्दन है
उन्मादों का वंदन है

मैं सूली टंगा मसीहा हूँ
मैं माटी का दीया हूँ

आरती के थाल में
अजान देती चौपाल में
राहें रोशन करता हूँ
जगमग सांझे धरता हूँ
फूल सा खिल जाता हूँ
धूल में मिल जाता हूँ
जीने की चाह जगाता हूँ
जल बुझ सबको जलना है
जीवन लौ में ढलना है
उजास का ठिकाना,

ज्योति का ठीया हूँ
मैं माटी का दीया हूँ

रास बिहारी गौड़ की ये कविता अजमेरनामा की वेबसाइट से ली गयी हैं - लिंक 

अगर आपको ये कविताएँ अच्छी लगे तो इनके मूल लेखकों के ब्लॉग लिंक पे जाकर उनका हौसला बढ़ाएं और इस लिंक को शेयर करें .


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